Friday, August 15, 2008

अखबारों में स्वतंत्रता दिवस-वेलकम विज्ञापन गुडबाय खबर..

आज के अखबारों मे खासकर स्थानीय संस्करणों मे सुर्खियों लगभग नदारद रहीं उनकी जगह सुर्ख रंगों मे छपे विज्ञापन ने ले रखी है। आज के दिन अखबार पड़े नहीं देखे जाते हैं इन मौकों पर संपाकदकीय विभाग के लोगों से कहा जाता है कि आप मौका विशेष के हिसाब से अच्छी लेख रपट तैयार रखें अगर विज्ञापनों के बाद जगह बची तो उसे छापा जाएगा।

स्वतंतत्रा दिवस व गणतंत्र दिवस भारत के दो ऐसे दिन हैं जिनका अखबार के मालिक बेसब्री से इंतजार करते रहते हैं। इस दिन वे सरकारी व गैर- सरकारी लोगों को विज्ञापन देकर देशभक्त कहलाने का मौका देते हैं। विज्ञापन दाता भी साल भर उनके बारे मे अच्छा या बुरा छापने वाले अखबारों को उनके कोपभाजन से बचने या उनसे दोस्ताना रिश्ते बनाए रखने के लिए क़तृज्ञता स्वरूप विज्ञापन देने से बच नहीं पाते है। ऐसा नहीं है कि कोई देखभक्ति की भावना के चलते विज्ञापन नहीं देता है। देतें हैं। पर उनका अनुपात वही रहता है जो ऐसे मौके पर अखबारों छपे विज्ञापनों व खबरों के बीच होता है।
इन अवसरों पर विज्ञापन चाहने वालों के हमले से सरकारी अधिकारी बच नहीं पाते हें। राष्ट्रीय त्यौहार होने की वजह से न तो वो छुट्टी पर जा सकते हैं और न ही मोबाइल बंद कर सकते हैं। हालांकि साल भर काला-पीला करने वाले अधिकारी व नेता चेहरे की मुस्कान व अंदर काली कमाई मे से विज्ञापन के रूप मे की जाने वाली हिस्सेदारी के विरोध मे चीत्कार करते दिल की आवाज को दरकिनार कर विज्ञापन ऐसे भाव से देते हैं जैसे विज्ञापन लेने वाला साल भर इंतजार कराने के बाद उनके पास आया हो। इन मौके पर सरकार भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को आर्थिक सहयोग के तौर पर करोड़ों रूपए के विज्ञापन जारी करती है।
हालांकि अखबारों मे खबरों से ज्यादा विज्ञापन छापने वालों का विरोध करने वालों को अखबार मालिकों वही घिसा पिटा तर्क देते है कि अखबार की लागत बढ़ गई है मुनाफा घट रहा है। उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि आखिर उनसे कहा किसने था कि अखबार निकालों ? मुनाफा ही कमाना था तो कमाई वाला काम करते। पर सच्चाई भी यही है कि आजादी की लड़ाई के दौरान अखबारों ने आम जनता मे जो पैठ बनाई थी उसी को मुनाफा मे बदलने के लिए चालक व्यापारियों ने अखबार निकालना शुरू कर दिया। इससे जहां उन्होने अपने आप को अपना सबकुछ आजादी के लिए होम कर अखबार निकालने वालों को समाज मे मिले सम्मान भी हासिल किया और मुनाफा भी।
शुक्र है कि आज के जैसे अखबार मालिक भारत की पराधीनता के समय नहीं हुए। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजों को भारत के आजादी के मतवालों की ललकार को देशभर मे गुजायमान करने वाले अखबारों की आवाज दबाने मे न तो हजारों अग्रेंजों की जिंदगियां दाव पर नहीं लगानी पड़ती, लाखों रूपए का गोला-बारूद खर्च करना पड़ता। अगर कुछ करना पड़ता तो वह होता चंद चांदी के सिक्के खर्च कर सबके लिए विज्ञापन जारी करना। यहां हमने खबरिया चैनलों की बात नहीं की क्योंकि कहा जाता है कि उनका तो जन्म ही मुनाफा वृत्ति के चलते हुआ है। आजादी की जंग के समय तो उनका कोई आस्तित्व ही नहीं था। उनके वर्तमान रंग-ढंग को देखकर कर भी ऐसे चैनल को ढूंढ पाना आसान नहीं है जो उन्हीं भावों के चलते आस्त्तिव मे आया हो जिनके चलते देश की आजादी की लड़ाई मे अखबार निकाले जाते थे।
फिर भी जनकल्याण व देशभक्ति की भावना से मीडिया प्रिंट व इलेक्ट्रानिक के क्षेत्र मे सक्रिय लोग व समूह हमेशा आदरणीय बने रहेगें। स्वंतत्रता दिवस के मौके पर उन सभी पत्रकारो, कर्मचारियों, नेताओं, अधिकारियों व देश वासियों को शत्-शत् नमन जो सबकुछ दांव पर लगाकर इस देश व देशवासियों की खुशहाली के लिए भारत मे या विदेश मे कहीं भी काम कर रहे हें।
जय हिंन्द जय भारत।

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