Friday, September 19, 2008

गाय बचे न बचे गौ-रक्षा आंदोलन चलाते रहिए..

हिंदू संस्कृति मे गाय को माता का दर्जा दिया गया है। कोई भी गाय को माता कहने मे पीछे नहीं रहना चाहता है लेकिन उनकी देखभाल करने के लिए आगे भी आना नहीं चाहता है। भारत का शायद ही कोई ऐसा शहर होगा जहां गायें आवारा पशुओं की तरह सड़कों पर भटकतीं नजर न आएं।
गायों की उपेक्षा करने वालों मे सबसे बड़ी संख्या उनके पालकों की है। जिनका गाय-प्रेम महज उनका दूध दुहने तक होता है। उसके बाद वो गायों को घर से बाहर निकाल देते हैं। इन हालातों मे गायें सारा दिन सड़कों पर भटकतीं रहतीं हैं। कचरे के डब्बों, सड़क किनारे फेंके गए सड़े फल सब्जियों, पालीथिन और सभी तरह के कचरे को खाकर ही वे बेचारी अपनी पेट भरतीं हैं।
पता नहीं इन कथित पालकों की मोटी बुद्धि मे यह बात कब घुसेगी कि जब गाय कचरा खाएगी तो उसका दूध कहां से पौष्टिक आएगा। गाय के खान-पान के खर्चा बचा पाने की खुशी मे गाफिल ये लोग इस दूध को पीकर पीकर व बेचकर खुदकी और दूसरों की सेहत का कबाड़ा करने के काम मे लगे हुए हैं।
खबर तो यह भी आ रहीं हैं कि कुछ कथित गौ सेवा केन्द्र भी इस धंधे मे शामिल होकर जमकर चांदी काट रहे हैं। बताया जा रहा है कि गाय के मांस व चमड़े के व्यापारी इन केन्द्रों मे गुपचुप तरीके से जानवर चिन्हित कर जाते हैं बाद मे उन्हीं जानवरों को केन्द्र के ही कर्मचारी खाना देना बंद कर देते हैं। भूख से मर जाने पर इन जानवरों के शवों को लावारिश हालत मे केन्द्रों से बाहर छोड़ देते हैं जिन्हें तय योजना के मुताबिक ठिकाने पर पहुचा दिया जाता है।
मौजूदा हालातों को देखकर तो नहीं लगता की संगठन व संस्थानों के सहारे गौ-माता की जिंदगी संवारी जा सकती है। जब तक गाय को माता मानने वाले लोगों के दिलों मे आखों के सामने दर दर पर भटकती गाय के कल्याण के लिए ठोस पहल नहीं करेंगें तब तक गाय का जीवन भगवान भरोसे ही बना रहेगा।

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