इन दिनों बुंदेलखण्ड में इस मुद्दे पर काफी माथा पच्ची चल रही है कि बुंदेलखण्ड के चुनावी व राजनैतिक परिदृश्य से भाजश गायब रहने सेक्षेत्र की दशा और दिशा पर क्या असर पडे़गा?
बदलते राजनैतिक समीकरणों के चलते जहां हाल ही में भाजश के कद्दावर नेता प्रहलाद पटेल भाजपा मे जा चुके हैं। वहीं पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष उमा भारती ने भी आडवाणी के लिए काम करने की इच्छा जताई है। इसके अलावा संसाधनों के अभाव को भी पार्टी के चुनाव मे उतरने में बाधक बताया गया है। इन हालातों को देखकर कर लगता है कि लोकसभा चुनावों मे भाजश वैसी सक्रिय नहीं रहेगी जैसी वह विधानसभा चुनाव २००८ के दौरान रही थी। बुंदेलखण्ड शुरू से ही भाजश की सक्रियता का केन्द्र रहा है। अगर भाजश चुनावाी परिदृश्य से गायब रहेगी तो इसका बुंदेलखण्ड की राजनीति पर असर पडे़ बिना नहीं रहेगा।
हालांकि क्षेत्र की जनता को इस बात का अहसास है कि बुंदेलखण्ड के विकास के लिए जितना काम उमा भारती के सत्ता मे रहने से नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा काम उनको सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद हुआ है। पर यह भी सच है कि उमा फेक्टर की महज मौजूदगी भर से लंबे समय तक नजरंदाज किए जाने वाले बुंदेलखण्ड को देश की मुख्य धारा की पार्टियों से तवज्जो मिलना शुरु हुई। जिसके चलते यहां विकास की धारा प्रवाहित होने लगी।
सियासतदारों के मुताबिक किसी भी राजनैतिक पार्टी को उसके जन्म के बाद के पांच-दस सालों को उसका शैशवकाल ही कहा जाता है। इस लिहाज से भाजश ने अपनी शुरूआत से ही बुंदेलखण्ड मे देश की मुख्य धारा की दोनों पार्टियों कांग्रेस व खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी की नाक मे दम कर दिया। विधानसभा चुनावों मे खासकर भाजपा ने भाजश को बड़ा खतरा नहीं माना लेकिन उसे यह मानकर नजरंदाज भी नहीं किया कि भाजश बड़ा खतरा नहीं है।
भाजश ने विधानसभा चुनावों के दौरान बुंदेलखण्ड की कुल २६ सीटों मे से २ सीटें- बडा मलहरा व निवाडी- हासिल कर देश के चुनावी लेखे जोखे मे अपना खाता खोला। जबकि परिसीमन के बाद के सागर संभाग की चारों लोकसभा सीटों में से टीकमगढ लोकसभा क्षेत्र की टीकमगढ व जतारा व खजुराहो संसदीय क्षेत्र मे छतरपुर जिले की चंदला, कटनी जिले की बहोरीबंद व पन्ना जिले की पवई विधानसभा सीट पर भाजश के प्रत्याशियों ने कांग्रेस व भाजपा को सीधी टक्कर भी दी।
भारतीय जनशक्ति पार्टी के उदय को बुंदेलखण्ड के राजनैतिक इतिहास मे एक युग नए की शुरुआत के रुप मे भी देखा जाता रहा है। भाजपा के ही मांस-मज्जा से जन्मी पार्टी खासतौर पर भाजपा की मुखालफत की खुराक से ही पुष्ट होती आई । भाजपा के असंतुष्टों और उमा के समर्थकोर्ं से ही भाजश का कुनबा अब तक समृद्भ होता रहा। लेकिन समय के साथ भाजश का अपना अलग जनाधार भी तैयार होता रहा। जिससे बुंदेलखण्ड की राजनीति राजनीतिक परिदृश्य मे देश की दो मुख्य राजनैतिक पार्टियों के एकाधिपत्य के लिए चुनौती देने वाले तीसरी ताकत के उदय के भी आसार बने।
इसके अलाावा बुंदेलखण्ड की सीमाओं के उप्र से लगे होने की वजह से भी राजनैतिक दलों ने बुंदेलखण्ड के विकास को खास महत्व दिया। उन्हें भय था की कही ं बलबती होती भाजश की आड़ मे अन्य पार्टियां भी इस क्षे त्र मे अपने पैर न जमा लें। इस मकसद से बुंदेलखण्ड मे अपनी पकड बरकरार बनाए रखने के लिए इन पार्टियों ने क्षेत्र की वर्षों से लंबित रही मांगों को पूरा कराने मे कोई कसर बाकी नहीं रखी। मुख्य धारा की पार्टियों ने बुंदेलखण्ड मे तीसरी ताकत के पैदा होने की सभी संभावनाओं पर रोक लगाने में अघोषित एकजुटता भी दिखाई। इस राजनैतिक उठापटक के चलते क्षेत्र के विकास को भी गति मिलती रही।
लेकिन मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य मे बुंदेलखण्ड मे तीसरी ताकत दम तोड ती नजर आ रही है। इससे मुख्य धारा की पार्टियों कांग्रेस व भाजपा की तो बांछे खिली हुई इस सब के चलते जनता मे यह आशंका भी जोर पकड ने लगी है कि तीसरी ताकत के रूप मे सामने आए राजनैतिक संकट के गायब होने से बेफिक्र हुए राजनैतिक दल कहीं एक बार फिर बुंदेलखण्ड में चल रही विकास की बयार का रूख किसी ओैर दिशा मे न मोड दें?
हालांकि क्षेत्र की जनता को इस बात का अहसास है कि बुंदेलखण्ड के विकास के लिए जितना काम उमा भारती के सत्ता मे रहने से नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा काम उनको सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद हुआ है। पर यह भी सच है कि उमा फेक्टर की महज मौजूदगी भर से लंबे समय तक नजरंदाज किए जाने वाले बुंदेलखण्ड को देश की मुख्य धारा की पार्टियों से तवज्जो मिलना शुरु हुई। जिसके चलते यहां विकास की धारा प्रवाहित होने लगी।
सियासतदारों के मुताबिक किसी भी राजनैतिक पार्टी को उसके जन्म के बाद के पांच-दस सालों को उसका शैशवकाल ही कहा जाता है। इस लिहाज से भाजश ने अपनी शुरूआत से ही बुंदेलखण्ड मे देश की मुख्य धारा की दोनों पार्टियों कांग्रेस व खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी की नाक मे दम कर दिया। विधानसभा चुनावों मे खासकर भाजपा ने भाजश को बड़ा खतरा नहीं माना लेकिन उसे यह मानकर नजरंदाज भी नहीं किया कि भाजश बड़ा खतरा नहीं है।
भाजश ने विधानसभा चुनावों के दौरान बुंदेलखण्ड की कुल २६ सीटों मे से २ सीटें- बडा मलहरा व निवाडी- हासिल कर देश के चुनावी लेखे जोखे मे अपना खाता खोला। जबकि परिसीमन के बाद के सागर संभाग की चारों लोकसभा सीटों में से टीकमगढ लोकसभा क्षेत्र की टीकमगढ व जतारा व खजुराहो संसदीय क्षेत्र मे छतरपुर जिले की चंदला, कटनी जिले की बहोरीबंद व पन्ना जिले की पवई विधानसभा सीट पर भाजश के प्रत्याशियों ने कांग्रेस व भाजपा को सीधी टक्कर भी दी।
भारतीय जनशक्ति पार्टी के उदय को बुंदेलखण्ड के राजनैतिक इतिहास मे एक युग नए की शुरुआत के रुप मे भी देखा जाता रहा है। भाजपा के ही मांस-मज्जा से जन्मी पार्टी खासतौर पर भाजपा की मुखालफत की खुराक से ही पुष्ट होती आई । भाजपा के असंतुष्टों और उमा के समर्थकोर्ं से ही भाजश का कुनबा अब तक समृद्भ होता रहा। लेकिन समय के साथ भाजश का अपना अलग जनाधार भी तैयार होता रहा। जिससे बुंदेलखण्ड की राजनीति राजनीतिक परिदृश्य मे देश की दो मुख्य राजनैतिक पार्टियों के एकाधिपत्य के लिए चुनौती देने वाले तीसरी ताकत के उदय के भी आसार बने।
इसके अलाावा बुंदेलखण्ड की सीमाओं के उप्र से लगे होने की वजह से भी राजनैतिक दलों ने बुंदेलखण्ड के विकास को खास महत्व दिया। उन्हें भय था की कही ं बलबती होती भाजश की आड़ मे अन्य पार्टियां भी इस क्षे त्र मे अपने पैर न जमा लें। इस मकसद से बुंदेलखण्ड मे अपनी पकड बरकरार बनाए रखने के लिए इन पार्टियों ने क्षेत्र की वर्षों से लंबित रही मांगों को पूरा कराने मे कोई कसर बाकी नहीं रखी। मुख्य धारा की पार्टियों ने बुंदेलखण्ड मे तीसरी ताकत के पैदा होने की सभी संभावनाओं पर रोक लगाने में अघोषित एकजुटता भी दिखाई। इस राजनैतिक उठापटक के चलते क्षेत्र के विकास को भी गति मिलती रही।
लेकिन मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य मे बुंदेलखण्ड मे तीसरी ताकत दम तोड ती नजर आ रही है। इससे मुख्य धारा की पार्टियों कांग्रेस व भाजपा की तो बांछे खिली हुई इस सब के चलते जनता मे यह आशंका भी जोर पकड ने लगी है कि तीसरी ताकत के रूप मे सामने आए राजनैतिक संकट के गायब होने से बेफिक्र हुए राजनैतिक दल कहीं एक बार फिर बुंदेलखण्ड में चल रही विकास की बयार का रूख किसी ओैर दिशा मे न मोड दें?
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