Tuesday, September 23, 2008

घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध...

विधानसभा चुनावों के करीब आते ही प्रदेश भर मे राजनैतिक माहौल गरमाने लगा है। सागर भी इस बदलाव से अछुता नहीं है। कांग्रेस पाटी के एक वरिष्ठ नेता के भाजपा मे चले जाने से बुंदेलखण्ड की राजनीति चौसर पर शह-मात का खेल शुरू हो गया है।
राजनैतिक दलों के कद्दावर नेताओं द्वारा पाला बदलने का चलन पिछले चुनावों के बाद से काफी आम हो चला है। किसी भी राजनैतिक दल के सिंद्धांत या परंपराएं इस नवाचार मे बाधक नहीं बन रहीं हैं। हालंकि पार्टियों के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के दिल मे एक कसक उठने लगी है। उनको अब ऐसा लगने लगा है कि प्रतिबद्धता, समर्पण व विचारधारा किसी भी पार्टीं मे तरक्की के पायदान नहीं रहे हैं। अब सभी राजनीतिक दलों मे चुनाव लड़ने का टिकिट उसी प्रत्याशी को देने मे अघोषित सहमति बनती नजर आ रहीं हैं जिसमे जीतने का मद्दा हो। भले ही वह मुख्य प्रतिंद्वंदी पार्टी का कार्यकर्ता हो या फिर निर्दलीय हो। अब ऐसा लगने लगा है कि भारत मे लोकतंत्र बदलाव के दौर से गुजर रहा है। नए माहौल मे राजनैतिक दल सत्ता मे आने के लिए विचारधारा नहीं प्रबंधन के हथकण्डे अपना रहे हैं। कमोबेश सभी राजनीतिक दलों द्वारा योग्य उम्मीदवार के लिए बनाए फ्रेम मे हर वो उम्मीवार फिट हो जाता है जिसमे चुनाव जीतने की काबिलियत नजर आती है। ऐसा उम्मीदवार मिलते ही पार्टिंयों अपने दल की विचारधारा का नहीं बल्कि सुविधाओं से लबरेज पैकेज आफर कर उसे लुभाने की कोशिशें मे लग जातीं हैं।
अब पार्टियों की प्राथमिकताओ मे टीम आती है उसके बाद थीम। भारत मे चुनाव अब हाल ही मे शुरू हुए क्रिकेट के टिवन्टीं-टिवन्टी मैच जैसे होते जा रहें हैं। जहां प्रतिबद्ध नेताओं को व्यापारी अपने नफे-नुकसान के तराजू पर तौलने के बाद ही चुनाव रूपी टूर्नामेण्ट मे खेलने की रजामंदी देते हैं। इसके बाद ही वे अपनी इच्छुक टीम यानि दल पर अपना चंदा रूपी पैसा लगाते है।
इस बदलाव के दौर मे सिंद्धांत की राजनीति लोकतंत्र के शो-रूम मे रखा एंटीक आईटम बनने वाली है और प्रतिबद्ध, समर्पित व विचारधाराओं मे पगे कार्यकर्ता की भूमिका बस घर के बुजुर्गों की तरह टीम रूपी परिवार के नवांगुतक सदस्यों को हंसी'खुशी के मौकों पर आशीर्वाद व शुभकामनाएं देने तक ही सीमित होती लग रही है।
पहले पार्टियों को हार मंजूर होती थी लेकिन चुनावी महासमर मे सिद्धांतो, विचारधारा व प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की कीमत पर बाहरियों को जीत की बैसाखी बनाना मंजूर नहीं होता था। लेकिन आज बाजारवाद के दौर मे मुनाफे की बीन पर समाज के सभी क्षेत्रों मे मूल्यों मे बदलाव देखा जा रहा है तो लोकतंत्र कहां तक बचा रहेगा। आखिर वह भी तो इसी समाज का उत्पाद है।

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