सागर।भाषा। बुंदेलखंड में स्थित सागर के किला में आज भले ही प्रदेश की एकमात्र पुलिस प्रशिक्षण अकादमी स्थित है, लेकिन इतिहास की किताबों में इसकी पहचान ब्रितानी हुकूमत के शस्त्रागार व अजेय किले के रूप में दर्ज है। अंग्रेज शायद ही कभी इस किले के उपकार को भूल पाएं जो इसने सन 1857 के गदर में सैकडों अंग्रेजों की जान बचाकर किया था।
फिरंगियों के कब्जे में तो यह किला सन 1818 में ही आया, लेकिन इसके अपराजेय होने की दास्तां इससे भी सैकड़ों साल पुरानी है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक आज के सागर की पहली बस्ती शहर से करीब दस किलोमीटर दूर स्थित गढ़पहरा नामक किले के आसपास 1023 ईस्वी में आबाद हुई थी, लेकिन पानी की कमी के चलते वहां के संस्थापक दांगी शासक निहाल शाह के वंशज उदंत शाह ने 1660 ईस्वी में सागर के तालाब के किनारे इस किले का निर्माण कराया, जिसके चारों ओर ही नया सागर बसा।
किले की मजबूती के बारे में सागर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक ब्रजेश श्रीवास्तव बताते हैं कि दांगी शासकों द्वारा बनवाए गए इस किले को असल मजबूती प्रदान करने का श्रेय मराठा शासक बाजीराव पेशवा प्रथम के सागर के किलेदार गोविन्द राव पंडित को जाता है। उसने लड़ाकू प्रवृत्ति के मराठों द्वारा किलों को सामरिक दृष्टि से अपराजेय बनाए जाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीकों का ही प्रयोग कर सागर किले को मजबूती प्रदान की।
बुंदेलखंड क्षेत्र के मराठों के प्रभाव में आने के घटनाक्रम बारे में इतिहासविद श्रीवास्तव बताते हैं कि दांगी शासकों के पराभव के बाद सागर क्षेत्र पन्ना के शासक महाराजा छत्रसाल के कब्जे में आ गया, लेकिन इलाहाबाद के तत्कालीन मुगल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश के खिलाफ जंग में मराठा शासक बाजीराव पेशवा प्रथम द्वारा दी गई मदद से खुश होकर छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र मान लिया। महाराजा छत्रसाल ने अपनी संपत्ति के बंटवारे में बाजीराव पेशवा को जो क्षेत्र सौंपा उसमें सागर भी शामिल था।
सागर के किले की अपराजेयता सबसे पहले सन 1799 व 1804 में सिद्ध हुई, जब पेशवा के पराभव पर मराठा साम्राज्य पांच भागों में बंट गया। बंटवारे में सागर का क्षेत्र नागपुर के भोंसले के अधिकार में आया ्र लेकिन यह बात इंदौर के होल्कर व ग्वालियर के सिंधिया को रास नहीं आई, तब होल्कर की शह पर अमीर खां पिंडारी व सिंधिया के इशारे पर अंग्रेज जीन बेप्टिस्ट ने क्रमश: 1799 ईस्वी व 1804 ईस्वी में सागर के किले पर हमला बोल दिया, लेकिन वे किले का बाल भी बांका न कर पाए पर इस खुन्नस में उन्होंने सागर की बस्ती को बर्बाद कर दिया।
सागर के इतिहास पर कई किताबें लिख चुके विषय विशेषज्ञ श्रीवास्तव बताते हैं कि भारत में मराठों के अंग्रेजों से पूरी तरह हार जाने के बाद ही सागर अंग्रेजों के कब्जे में आया।
सन 1818 ईस्वी में सागर व दमोह अंग्रेजों के जिले बन गए। पहली ही नजर में सागर का किला अंग्रेजों को भा गया और उन्होंने इसे मध्य भारत में ब्रितानी हुकूमत का शस्त्रागार व हथियारों का कारखाना बना लिया। अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने सरकारी पत्रों में लिखा है कि विशाल तालाब से घिरा, ऊचाई पर स्थित यह किला सामरिक दृष्टि से सुरक्षित व काफी मजबूत है।
स्वराज संस्थान भोपाल के लिए सन 1857 के गदर से जुडे एक प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे इतिहासविद श्रीवास्तव बताते हैं कि दिल्ली, मेरठ, झांसी व अवध में विद्रोह भड़कने की खबर आते ही सागर के अंग्रेजों के होश उड गए। वह 1842 के पहले बुंदेला विद्रोह में बुंदेलों के खतरनाक तेवर देख चुके थे और 8 जून 1857 में झांसी के पास झोकन बाग में विद्रोहियों द्वारा 110 अंग्रेजों को मौत के घाट उतार देने की खबर भी उन तक पहुंच चुकी थी।
सागर छावनी स्थित 42वीं व 31वीं देशी पलटनों में भी विद्रोह के स्वर उठने लगे थे।
इन गंभीर हालात को देखकर ब्रिगेडियर सेजे ने सागर छावनी में रह रहे सभी अंग्रेज परिवारों को सागर किले में भेज दिया। किले में शरण लेने वाले 370 अंग्रेजों में 173 पुरुष, 63 महिलाएं व 134 बच्चे थे। 27 जून 1857 को किले में अंग्रेजों के शरण लेने के ठीक चौथे दिन ही सागर में विद्रोह की आग पहुंच गई।
श्रीवास्तव बताते हैं कि एक जुलाई 1857 को सागर स्थित 42 देशी पलटन के सीनियर सूबेदार शेख रमजान ने सागर शहर के बीचोंबीच स्थित मस्जिद के द्वार पर नगाड़ा बजाकर विद्रोह का ऐलान कर दिया। जल्द ही 31वीं देशी पलटन के जवान भी उसके साथ शामिल हो गए।
उन्होंने शेख को अपना जनरल घोषित कर दिया। विद्रोहियों ने पहले सदर क्षेत्र में हमला किया, लेकिन छावनी क्षेत्र को खाली देख कर उनका गुस्सा भड़क गया और उन्होंने सागर के किले को घेर लिया। किले में शरण लिए अंग्रेजों को मौत का भय सताने लगा। सागर के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर वेस्टर्न ने 22 अगस्त 1857 को व जबलपुर के कमिश्नर अर्सकाइन ने भी 7 नवंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर सागर के नाजुक हालातों की जानकारी देकर ज्यादा फौजें भेजे जाने की मांग की।
मेजर जनरल ह्यूरोज ने सबसे पहले 21 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार को लिखे पत्र में सागर के किले के सामरिक महत्व के बारे में सूचना दी। उसने लिखा कि यह सेंट्रल इंडिया की आयुधशाला है। यहां न केवल हथियार बनाए जाते हैं, बल्कि उन्हें चारों ओर भेजा भी जाता है। सामरिक नजरिए से भी इसकी भौगोलिक स्थिति महत्वपूर्ण है। यहीं से बुंदेलखंड के विद्रोह के हालात पर काबू पाया जा सकता है।
सागर के किले में बंद अंग्रेजों को मुक्त कराने को अपनी सबसे बड़ी चिंता बताते हुए मेजर जनरल ह्यूरोज ने बुंदेलखंड में सैन्य कार्रवाई कर 3 फरवरी 1858 को सागर किले से 7 माह 7 दिन तक कैद रहे अंग्रेजों को मुक्त कराया।
सागर के किले में 222 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच रातदिन काटने वाले अंग्रेजों के परिवारों की नई पीढि़यों को यह घटना याद हो या न हो पर सागर के किले की दीवारों, वहां की आबो-हवा और इतिहास की किताबों में यह याद हमेशा मौजूद रहेगी।
फिरंगियों के कब्जे में तो यह किला सन 1818 में ही आया, लेकिन इसके अपराजेय होने की दास्तां इससे भी सैकड़ों साल पुरानी है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक आज के सागर की पहली बस्ती शहर से करीब दस किलोमीटर दूर स्थित गढ़पहरा नामक किले के आसपास 1023 ईस्वी में आबाद हुई थी, लेकिन पानी की कमी के चलते वहां के संस्थापक दांगी शासक निहाल शाह के वंशज उदंत शाह ने 1660 ईस्वी में सागर के तालाब के किनारे इस किले का निर्माण कराया, जिसके चारों ओर ही नया सागर बसा।
किले की मजबूती के बारे में सागर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक ब्रजेश श्रीवास्तव बताते हैं कि दांगी शासकों द्वारा बनवाए गए इस किले को असल मजबूती प्रदान करने का श्रेय मराठा शासक बाजीराव पेशवा प्रथम के सागर के किलेदार गोविन्द राव पंडित को जाता है। उसने लड़ाकू प्रवृत्ति के मराठों द्वारा किलों को सामरिक दृष्टि से अपराजेय बनाए जाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीकों का ही प्रयोग कर सागर किले को मजबूती प्रदान की।
बुंदेलखंड क्षेत्र के मराठों के प्रभाव में आने के घटनाक्रम बारे में इतिहासविद श्रीवास्तव बताते हैं कि दांगी शासकों के पराभव के बाद सागर क्षेत्र पन्ना के शासक महाराजा छत्रसाल के कब्जे में आ गया, लेकिन इलाहाबाद के तत्कालीन मुगल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश के खिलाफ जंग में मराठा शासक बाजीराव पेशवा प्रथम द्वारा दी गई मदद से खुश होकर छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र मान लिया। महाराजा छत्रसाल ने अपनी संपत्ति के बंटवारे में बाजीराव पेशवा को जो क्षेत्र सौंपा उसमें सागर भी शामिल था।
सागर के किले की अपराजेयता सबसे पहले सन 1799 व 1804 में सिद्ध हुई, जब पेशवा के पराभव पर मराठा साम्राज्य पांच भागों में बंट गया। बंटवारे में सागर का क्षेत्र नागपुर के भोंसले के अधिकार में आया ्र लेकिन यह बात इंदौर के होल्कर व ग्वालियर के सिंधिया को रास नहीं आई, तब होल्कर की शह पर अमीर खां पिंडारी व सिंधिया के इशारे पर अंग्रेज जीन बेप्टिस्ट ने क्रमश: 1799 ईस्वी व 1804 ईस्वी में सागर के किले पर हमला बोल दिया, लेकिन वे किले का बाल भी बांका न कर पाए पर इस खुन्नस में उन्होंने सागर की बस्ती को बर्बाद कर दिया।
सागर के इतिहास पर कई किताबें लिख चुके विषय विशेषज्ञ श्रीवास्तव बताते हैं कि भारत में मराठों के अंग्रेजों से पूरी तरह हार जाने के बाद ही सागर अंग्रेजों के कब्जे में आया।
सन 1818 ईस्वी में सागर व दमोह अंग्रेजों के जिले बन गए। पहली ही नजर में सागर का किला अंग्रेजों को भा गया और उन्होंने इसे मध्य भारत में ब्रितानी हुकूमत का शस्त्रागार व हथियारों का कारखाना बना लिया। अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने सरकारी पत्रों में लिखा है कि विशाल तालाब से घिरा, ऊचाई पर स्थित यह किला सामरिक दृष्टि से सुरक्षित व काफी मजबूत है।
स्वराज संस्थान भोपाल के लिए सन 1857 के गदर से जुडे एक प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे इतिहासविद श्रीवास्तव बताते हैं कि दिल्ली, मेरठ, झांसी व अवध में विद्रोह भड़कने की खबर आते ही सागर के अंग्रेजों के होश उड गए। वह 1842 के पहले बुंदेला विद्रोह में बुंदेलों के खतरनाक तेवर देख चुके थे और 8 जून 1857 में झांसी के पास झोकन बाग में विद्रोहियों द्वारा 110 अंग्रेजों को मौत के घाट उतार देने की खबर भी उन तक पहुंच चुकी थी।
सागर छावनी स्थित 42वीं व 31वीं देशी पलटनों में भी विद्रोह के स्वर उठने लगे थे।
इन गंभीर हालात को देखकर ब्रिगेडियर सेजे ने सागर छावनी में रह रहे सभी अंग्रेज परिवारों को सागर किले में भेज दिया। किले में शरण लेने वाले 370 अंग्रेजों में 173 पुरुष, 63 महिलाएं व 134 बच्चे थे। 27 जून 1857 को किले में अंग्रेजों के शरण लेने के ठीक चौथे दिन ही सागर में विद्रोह की आग पहुंच गई।
श्रीवास्तव बताते हैं कि एक जुलाई 1857 को सागर स्थित 42 देशी पलटन के सीनियर सूबेदार शेख रमजान ने सागर शहर के बीचोंबीच स्थित मस्जिद के द्वार पर नगाड़ा बजाकर विद्रोह का ऐलान कर दिया। जल्द ही 31वीं देशी पलटन के जवान भी उसके साथ शामिल हो गए।
उन्होंने शेख को अपना जनरल घोषित कर दिया। विद्रोहियों ने पहले सदर क्षेत्र में हमला किया, लेकिन छावनी क्षेत्र को खाली देख कर उनका गुस्सा भड़क गया और उन्होंने सागर के किले को घेर लिया। किले में शरण लिए अंग्रेजों को मौत का भय सताने लगा। सागर के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर वेस्टर्न ने 22 अगस्त 1857 को व जबलपुर के कमिश्नर अर्सकाइन ने भी 7 नवंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर सागर के नाजुक हालातों की जानकारी देकर ज्यादा फौजें भेजे जाने की मांग की।
मेजर जनरल ह्यूरोज ने सबसे पहले 21 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार को लिखे पत्र में सागर के किले के सामरिक महत्व के बारे में सूचना दी। उसने लिखा कि यह सेंट्रल इंडिया की आयुधशाला है। यहां न केवल हथियार बनाए जाते हैं, बल्कि उन्हें चारों ओर भेजा भी जाता है। सामरिक नजरिए से भी इसकी भौगोलिक स्थिति महत्वपूर्ण है। यहीं से बुंदेलखंड के विद्रोह के हालात पर काबू पाया जा सकता है।
सागर के किले में बंद अंग्रेजों को मुक्त कराने को अपनी सबसे बड़ी चिंता बताते हुए मेजर जनरल ह्यूरोज ने बुंदेलखंड में सैन्य कार्रवाई कर 3 फरवरी 1858 को सागर किले से 7 माह 7 दिन तक कैद रहे अंग्रेजों को मुक्त कराया।
सागर के किले में 222 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच रातदिन काटने वाले अंग्रेजों के परिवारों की नई पीढि़यों को यह घटना याद हो या न हो पर सागर के किले की दीवारों, वहां की आबो-हवा और इतिहास की किताबों में यह याद हमेशा मौजूद रहेगी।
Nice News Story] Ravi] Mumbai
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